शारजाह में प्रवास के दौरान वेब पत्रिकाओं ‘अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ में हिंदी साहित्य को प्रतिबद्धता से प्रसारित करने वाली लेखिका पूर्णिमा वर्मन अपनी कहानियों के प्रति भी बेहद सजग दिखाई देती हैं। अपने वतन को छोड़ कर एक दूसरे देश में नयी दुनिया बसाने का, उसे अपनाने का संघर्ष इनकी कहानियों में मुखरित हुआ है। साथ ही इन कहानियों में स्वदेशीय समाज और संस्कृति की झलक भी मिलती है। इनके नायक प्राय: गौण भूमिका में ही दिखाई देते हैं। इनकी नायिकाएं अपनी जड़ों से दूर होते हुए भी उनसे जुड़ी हुई हैं। अपने अतीत की स्मृतियों और वर्तमान, भविष्य की चुनौतियों के बीच वह सभी एक अंतरद्वंद्व में जीती हैं। नये जीवन के बीच अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए चिंतित हैं। वह पुराने व नये शहर और देश के समाज-संस्कृति की तुलना करती हैं। वह धीरे-धीरे उस नये परिवेश में कुछ ढल जाती हैं, लेकिन अपनी जड़ों से उखड़ती नहीं हैं।
‘एक शहर जादू-जादू’ की अनन्या लखनऊ छोड़कर जयपुर आकर बसती है लेकिन हर चीज़ में वह लखनऊ की याद को सीने से लगाए रहती है। वह प्रेसवाली रामधणी को देखकर लखनऊ की रामकली को बरबस याद करते हुए दोनों में तुलना करने लगती है। रंगीले जयपुर और नवाबी लखनऊ के रंगों से वहाँ के मौसम तक की तुलना कुशलता से कर देती है।
‘शहर शहर के रंग अलग होते हैं। गर्मियों के मौसम में लखनऊ में सब हल्के रंग पहनते हैं बिलकुल हल्का गुलाबी, आसमानी, सफेद, क्रीम-चिकन के सूती पतले कपड़ों के साथ। कपड़े सूती तो यहाँ भी होते हैं पर जरा मोटे और चटक रंगों के। किसी लड़की को लाल सलवार, हरी चुन्नी और पीला कुर्ता पहने देखना आम बात है’।
हर प्रवासी को शहरों, देशों को छोड़ने और नयी जगह पहचान व अपनापन बनाने में एक अजीब सी पीड़ा से गुजरना पड़ता है। हर शक्स नये परिवेश में ढल ही जाये, यह जरुरी नहीं लेकिन कोशिश तो करता ही है। यह बात अलग है कि उस कोशिश में वह अनमना सा मन लिए थोड़ी देर के लिए सैलानी भले ही बन जाता है। उसके मन की पीड़ा फिर भी दूर नहीं होती, वह एक अनकही कसक में जीता है। अनु के मन की इसी कसक को खूब उकेरा गया है।
‘पुराने शहरों को छोड़ने और नए शहर में ढल जाने के इस दौर में अजीब सी स्थितियों से गुजरना होता है। कोई भावुकता तो नहीं, फिर भी पेट में तितलियाँ उड़ने जैसी बेचैनी और जरा सी सैलानियों वाली उत्सुकता’।
‘उसकी दिवाली’ की नंदिता एक ऐसी स्त्री है जो, अपने परिवार, रिश्तों, भारतीय संस्कृति और व्यवसाय में सामंजस्य बिठाती नज़र आती है। वह इसी उधेड़-बुन में अपने घर की तंगी दूर करने के लिए खोली गई बुटीक ‘संस्कृति’ में दिन-रात खटती रहती है। वह समाज में उभरती हुई उस कामकाजी महिला का प्रतिनिधित्व करती है जो, काम के साथ-साथ घर और भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में पिरोए रखना चाहती हैं। उसकी बुटीक का नाम ‘संस्कृति’ भी प्रतीक है उसके इसी भारतीय संस्कृति से जुड़े होने का। दिवाली से पहले नरक चौदस पर सफाई करने को अहम मानना, दिवाली वाले दिन कार्यस्थल पर पूजन, घर पर सफाई और रंगोली के लिए चिंतित होना उसके कुशल भारतीय गृहणी के परिचायक हैं। अंतत नंदिता की दिवाली खुशियों भरी होती है। वह सब कर पाती है जो भी, दिवाली पर किया जाता है, पति राजीव भी उसकी इसमें मदद करता है। कहानी में कामकाजी स्त्री को कैसे घर और काम के बीच दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है, इसी को सजीवता प्रदान की गई है।
‘फुटबॉल’ कहानी में मिसेज नीलम विरमानी बढ़ती उम्र के चलते पति-पत्नी संबंधों में आई एक खास किस्म की शून्यता, ऊब, एकांत में जीती है। मिसेज विरमानी अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए कई चीज़ों पर आश्रित हो जाती है। वह कमलेश्वर का उपन्यास “सुबह दोपहर शाम” पढ़ती है। उपन्यास का नाम भी यहाँ मिसेज विरमानी के वही नीरस और एक-सी दिनचर्या का प्रतीक है। मुहल्ले में बनने वाले पार्क के कारण जैसे उस खामोश हुए दम्पत्ति को बातचीत करने का एक विषय मिल गया हो, पार्क-निर्माण की चर्चाएं उन्हें फिर से जोड़ रही थीं। यही कारण था कि मिसेज विरमानी का उपन्यास पढ़ना अब छूट गया था। वह अब टी.वी. भी कम देखते थे और पूरी शाम पार्क की बातों में डूबे रहते थे। पार्क का निर्माण-कार्य पूरा हो जाने पर फिर वही उपन्यास, टी.वी. और खामोशी का सिलसिला शुरु हो गया।
“कॉफी ख़त्म हुई तो वे मग रखने अंदर गयीं और दो महीने से छुटे ‘सुबह शाम दोपहर’ को लेकर बाहर आ गयीं”।
रिश्तों को करीब लाने में छोटी सी घटना भी कितनी महत्वपूर्ण हो सकती इसे कहानी के द्वारा यह दिखाया गया है। कहानी में मिसेज विरमानी भारत को बार-बार याद करती है। उसके मन में भी प्रवास की पीड़ा है और इमारात से अपने देश, मुहल्ले की तुलना भी करती है। ‘शुकरन हबीबी’ का अर्थ बताते और वहाँ के राष्ट्रीय खेल ‘फुटबॉल’ का सजीव दृश्य चित्रित करते हुए शारजाह की संस्कृति को भी हमारे सामने रोचकता से प्रस्तुत करती है। एक स्त्री किस तरह से ऊबमयी जीवन जीते हुए भी अपने दायरे में बंधी रहती है, यह इस प्रतीकात्मक कहानी के द्वारा समझा जा सकता है।
‘यों ही चलते हुए’ कहानी शुरू ही एकांत से होती है। कहानी में प्रांरभ से ही नीमा के ज़िंदगी का सफ़र सड़क पर अकेले शुरू होता है। सड़क यहाँ पर नीमा की लम्बी ज़िंदगी का प्रतीक है। सड़क पर जिस तरह अनेक राहगीर मिलते हैं, कुछ देर साथ चलते है और फिर अलग हो जाते हैं। नीमा भी इसी कसक को महसूस करती दिखती है। वह देहरादून छोड़कर शारजाह आकर बसती तो है लेकिन देहरादून से कभी अलग नहीं हो पाती है। वह शारजाह में काफी कुछ आज तक भी देहरादून के हिसाब से ही कर बैठती है।
“देहरादून की सर्दियों में स्कार्फ का जो मतलब होता है वह शारजाह की सर्दियों में नहीं होता। पर नीमा ना तो देहरादून से अलग हो पाई है ना ही शारजाह में मिल पाई है इसलिए सबकुछ मिला-जुला सा अनाप-शनाप सा होता ही रहता है”।
नीमा एक एकांत भरी ज़िंदगी में कुछ रंग भरने के लिए चित्रा के घर पर गैट-टु-गेदर में भी शामिल होती है, लेकिन वहाँ की हवा उसका दम घोंट रही थी। वह किसी भी परिस्थिति में अपने को फिट महसूस नहीं कर पा रही थी। वह जीवन की सड़क में विभिन्न चौखानों से गुजरती है लेकिन हर चौखाना उसे देहरादून और अपनी संस्कृति से दूर नहीं ले जा सका। यहाँ चौखाने उसकी ज़िंदगी के उन पड़ावों का प्रतीक है जो, उसके जीवन में बार-बार उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। हम सभी जीवन में अनेक प्रकार के चौखानों को पार करते हैं तथा उन पर टिकना भी चाहते हैं।
“फर्श के चौखाने, छत के चौखाने और अलग-अलग देशों की अलग-अलग संस्कृतियों के चौखाने”।
संस्कृतियों के चौखानों की इस शृंखला को पार करते हुए नीमा और मार्क मक्लीन की दोस्ती में हुई। जो काफी लम्बे समय तक चल नहीं पाती, क्योंकि चौखानों के बीच की सीमेंट उनमें दूरी बनाये रखती है। फिर भी इस दोस्ती में होने वाली भारतीय और ग्रीक माइथोलोजी पर बातचीत से नीमा का अपने देश भारत के प्रति समर्पण भाव दिखाई देता है। यह बातचीत नीमा के प्रवासी होने पर उसे अभी तक भारतीय घोषित करता थी। थिलोका के संदर्भ में चौखानों का प्रयोग अनुभवों के लिए हुआ है।
“कितने सारे चौखानों के बारे में जानती है थिलोका, नीमा ने सोचा था। इतने सारे चौखानों से गुजरते हुए इस दुनिया के समंदर के कितने ज्वार भाटे झेले होंगे इसने”। यह कहानी अपने शीर्षक से लेकर अंत तक कई प्रतीकों को हमारे सामने रखती है जो, शायद नीमा ही नहीं हम सबके जीवन का सत्य है।
इन सभी कहानियों में लेखिका ने संस्कृति और वैश्वीकरण की परस्पर टकराहट चित्रित की है। अतीत और वर्तमान में जीवन को खोजती लेखिका पूर्णिमा वर्मन की यह कहानियाँ स्त्री जीवन में वक्त के साथ आई नीरसता को दर्शाती हैं। साथ ही उनके बिखरते-टूटते व्यक्तित्व को भी चित्रित करती हैं। लेखिका की प्रतीकात्मक शैली काफी प्रभावित और नवीनता लिये हुए है। सरसतापूर्ण अपनी भाषा से इन्होंने स्त्री जीवन के हर संघर्ष को चित्रित करने की कोशिश की है। इनकी कहानियों में प्राय: भारतीय संस्कृति से लगाव के साथ-साथ नई सांस्कृतिक परिवेश को ग्रहण करने की कश्मकश मिलती है। लेखिका ने एकदम पाश्चात्य संस्कृति से मुँह नहीं फेरा है, बल्कि उन्होंने कई जगहों पर उसे बाँहें फैलाए अपनाया भी है। स्त्री-जीवन के विविध आयाम प्रस्तुत कर इन्होंने हिंदी जगत को नई अनुभव शृंखला दी है।
लेखिका के विषय में- दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से एम.ए., एम.फिल तथा पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त डॉ. पूजा प्रजापति समीक्षा और आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं। देश विदेश से प्रकाशित लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलोचनात्मक लेख व समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। |