अखबारवाला की छटपटाहट : सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी -विजय शर्मा

भूमंडलीकरण के दौर में ऐसा माना जा रहा है कि सारी दुनिया समरूप हो गई है, पूरे विश्व में बस एक ही सभ्यता-संस्कृति का बोलबाला हो गया है। पर क्या वास्तव में ऐसा हो गया है? अगर ऐसा हो गया है तो यह शुभ नहीं है। अभी ऐसा नहीं हुआ है। मगर भविष्य में ऐसा हो सकता है। अगर ऐसा अभी नहीं हुआ है और भविष्य में हो सकता है तो भी यह शुभ नहीं होगा। विभिन्नता प्रकृति का एक गुण है। यही गुण सभ्यता-संस्कृति का भी है यदि यही नष्ट हो गया तो फिर बचेगा क्या! शुक्र है अभी तक पूरी तौर पर ऐसा नहीं हो पाया है हालांकि कोशिशें जारी हैं। बाजार अपने नफ़े के लिए अपना पूरा जोर लगा रहा है कि ऐसा ही हो जाए। यह भविष्य ही तय करेगा कि बाजार जीतता है अथवा मानवता, सभ्यता-संस्कृति की विजय होती है। लेकिन हाल-फ़िलहाल सारी दुनिया में विभिन्न सभ्यता-संस्कृति दिखाई देती है जो शुभ है, प्राकृतिक है, नैसर्गिक है।

समाजशास्त्री बतातें हैं और स्वीकार करते हैं कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति में मूलभूत अंतर है। दोनों में जमीन-आसमान का भेद है। ये दो अलग दुनिया हैं। दोनों दुनिया के लोगों के संस्कार भिन्न हैं, आचार-विचार और मूल्य अलग-अलग हैं। पूरब और पश्चिम के लोगों की सामाजिक-मानसिक बनावट भिन्न है। सोच-समझ, व्यवहार सब भिन्न है। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, अपनी-अपनी सीमाएँ हैं अपनी-अपनी कमियाँ हैं। जब हम पूरब कहते हैं तो भारत, चीन, जापान आदि देश इसमें आते हैं जबकि पश्चिम कहते ही द यूनाइटेड स्टेट्स, ग्रेट ब्रिटेन, और कनाडा अर्थात अमेरिका और यूरोप की छवि उभरती है। दोनों समाजों में मूलभूत अंतर है क्योंकि पूरब समूहवादी समाज का पोषक है, जहाँ रिश्ते-नाते प्रमुखता पाते हैं। जबकि अमेरिकी समाज एक व्यक्तिवादी समाज है, जहाँ संबंध मतलब यानि कि लेन-देन आधारित होते हैं। पारिवारिक संबंध भी अक्सर इसी मापदंड पर तौला जाता है। मजे की बात है कि समूहवादी-व्यक्तिवादी जैसी अंवेषणा-गवेषणा भी बाजार के चलते ही हुईं हैं। व्यापारियों को बिजनेस फ़ैलाने के लिए बाजार और उपभोक्ता के मिजाज को जानना-समझना अत्यावश्यक है। इसी के तहत संस्कृतियों का अध्ययन इस दृष्टि से किया गया। आज सारे बिजनेस स्कूल अपने छात्रों को इन विभिन्नताओं के विषय में पाठ पढ़ाते हैं ताकि व्यापार के नए गुर विकसित किए जा सकें, अपना बाजार और फ़ैलाया जा सके, और मुनाफ़ा कमाया जा सके।

गुणसूत्रों के अलावा व्यक्ति के व्यक्तित्व निखारने में पर्यावरण का हाथ होता है। पर्यावरण अर्थात उसके चारों ओर का सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण। सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण मिल कर संस्कृति का निर्माण करते हैं। इस तरह संस्कृति व्यक्तित्व निर्माण का एक प्रमुख घटक है। संस्कृति व्यक्तित्व निर्मित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती है। व्यक्ति अपनी संस्कृति से ही अपने मूल्य ग्रहण करता है। इसी कारण व्यक्तिवादी संस्कृति और समूहवादी संस्कृति में जमीन-आसमान का फ़र्क होता है। अत: इनमें पले-बढ़े मनुष्य का व्यक्तित्व भी भिन्न-भिन्न होता है। समूहवादी संस्कृति में लोग अपने समूह के द्वारा जाने जाते हैं। वे समूह पर निर्भर करते हैं। समूहवादी सुसंगति, संगठन, प्रतिबद्धता और स्वामीभक्ति आदि गुणों पर बल देते हैं। वहाँ ग्रुप ओरिएंटेशन महत्वपूर्ण होता है। इस तरह के समाज में लोग अपने विस्तृत परिवार को भी अपना परिवार मानते हैं, साथ ही उनके लिए समुदाय के अन्य लोग, पास-पड़ौस के लोग भी अपने रिश्तेदारों की भाँति होते हैं। वे उनसे भी निकट का संबंध मानते हैं और उनके दु:ख-सुख में शामिल होते हैं। समूहवादी संस्कृति में लोग जन्म से ही समूह से मजबूती से बँधे होते हैं, खासकर विस्तृत परिवारों जिसमें बाबा-दादी, चाचा-चाची और तमाम भाई-बहन ही नहीं आते हैं बल्कि आसपास के सारे लोग समाहित होते हैं। इस व्यापक परिवार के प्रति निष्ठा को बहुत महत्व दिया जाता है, परिवार की चिंता को व्यक्ति की चिंता से पहले स्थान दिया जाता है। कर्तव्य, प्रबंध, परम्परा, बड़े बुजुर्गों का आदर सम्मान, समूह सुरक्षा तथा समूह की प्रतिष्ठा और उत्तराधिकार का सम्मान, एक दूसरे के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख मानना, उसमें शामिल होना आदि इस तरह की संस्कृति के प्रमुख मूल्य होते है। व्यक्तिवाद में व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता है वह केवल अपने बारे में ही सोचता है। वह दूसरों से विशेष अपेक्षा नहीं रखता है और न ही दूसरों की ज्यादा चिंता करता है। अक्सर दूसरों से उसका मात्र औपचारिक रिश्ता होता है और आर्थिक जरूरतों तक ही संबंध सीमित रहते हैं। पास-पड़ौस उसके लिए कोई खास मायने नहीं रखता है। न वह पास-पड़ौस के जीवन में दिलचस्पी लेता है और न ही चाहता है कि कोई उसके जीवन में ताक-झाँक करे। अगर कोई ऐसा करता है तो वह उसे अनाधिकार चेष्टा लगती है, इसे वह सहन नहीं करता है।

अब एक ऐसे व्यक्ति की बात सोचिए जिसका जन्म भारत में हुआ है। लालन-पालन भारतीय परिवेश में हुआ है परंतु जो वयस्क होने पर अमेरिका में रह रहा है। एक भारतीय मन जो शारीरिक रूप से अमेरिका में प्रवास कर रहा है। जिसकी आदतें, मूल्य, रीति-रिवाज सब भारतीय हैं। अमेरिका में निवास करते हुए कितने सारे द्वंद्वों का सामना करना पड़ता होगा ऐसे व्यक्ति को। अमेरिका में रह रही सुदर्शन सुनेजा ने अपनी कहानी ‘अखबार वाला’ में एक ऐसे ही व्यक्ति के मनोभावों को चित्रित किया है। उन्होंने छोटी-सी घटना के इर्द-गिर्द एक बहुत संवेदनशील और सांद्र कहानी की रचना की है। इस कहानी के द्वारा उन्होंने प्रवासी मन को समझने-समझाने का काम किया है।

अखबार वाला’ की जया काफ़ी समय से अमेरिका में रह रही है। पहले एक इलाके में वह दस साल रही और अब इस इलाके में – जहाँ कहानी घटित होती है वहाँ – भी पिछले दो साल से रह रही है। वह समूहवादी समाज भारत की उपज है जहाँ व्यक्ति अपने पास-पड़ौस के जीवन का सक्रिय अंग होता है। मगर अब वह व्यक्तिवादी समाज अमेरिका में रह रही है जहाँ पास-पड़ौस के जीवन में रूचि लेना दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप माना जाता है। लोग इसे नापसंद करते हैं। दु:ख-सुख को खुद तक ही सीमित रखना सभ्यता मानी जाती है। वे अपने दु:ख-सुख को सार्वजनिक नहीं करते हैं। यहाँ की सामाजिकता का तकाजा है कि अपने दु:ख-दर्द को अपने घर के दरवाजे के भीतर तक ही समेट कर रखा जाए। अगर कोई ‘हेलो हाय’ से आगे बढ़ने की चेष्टा करता भी है तो इसे अनाधिकार की संज्ञा दी जाती है। पड़ौसी एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते हैं और न ही जानने में रूचि रखते हैं। दरवाजों पर नेमप्लेट लगाने का रिवाज भी नहीं है।

दूसरी ओर जया का भारतीय मन है जहाँ जब तक आस-पास के चार लोगों से बात न कर ली जाएँ, उनका हाल-चाल न जान लिया जाए अपना दु:ख-दर्द न सुना लिया जाए तब तक खाना हजम नहीं होता है। यदि आपने पड़ौसी के जीवन में रूचि न ली तो आपको असामाजिक और अव्यावहारिक माना जाता है। आप सुसंस्कृत की श्रेणी में नहीं रखे जाते हैं। ताक-झाँक भारतीय का स्वभाव है। जिज्ञासा उसकी प्रवृति है। इसीलिए जया की “पढ़ने की टेबल बिल्कुल बेडरूम की खिड़की के पास थी। उसकी जिज्ञासू आँखें सड़क, गली और सामने वाले घरों की गतिविधियों पर गाहे-बगाहे नजर रहती थी।” शायद जया कहीं बाहर काम नहीं करती है इसलिए भी उसके पास काफ़ी समय है और वह दूसरों के क्रिया-कलापों पर नजर रखती है। पहले घर में बच्चे थे अब शायद वे बड़े हो गए हैं और अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए हैं और जया अकेली पड़ गई है इसीलिए उसे दूसरों के अकेलेपन का दु:ख व्यापता है। कहा भी गया है जाके फ़टे न विबाई सो क्या जाने पीर पराई। कहानी इन बातों का कहीं खुलासा नहीं करती है मात्र संकेत भर हैं जिनसे पाठक कयास लगा सकता है।

दोनों समाज के व्यक्ति अपने-अपने समाज में बड़ी सुगमता से अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं। मुश्किल तब आती है जब उन्हें दूसरे के समाज में रहना होता है। जया अमेरिकी समाज में रह रही है। वह अमेरिका में भारतीय प्रवासी है। भले ही उसे ग्रीन कार्ड मिल गया हो मगर वह चैन से नहीं रह सकती है। अमेरिकी व्यवहार को देख-देख कर उसका भारतीय मन बहुत बेचैन रहता है।

कहानी की शुरुआत में ही सन्नाटे की बात आती है। सुबह-सुबह चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ है। भारत की तरह का शोरशराबा वहाँ नहीं है। शोरशराबे का आदी जया मन अनायास भारत की सुबह का स्मरण करने लगता है। अधिकाँश भारतीय अभी भी इस तरह के घरों में रहता है जहाँ जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा बाहर खुले में व्यतीत होता है। घर के बंद कमरों में नहीं। जहाँ घर के ज्यादातर काम खुले आँगन, छत-चौबारे में होते हैं। यहाँ तक कि सोने के लिए भी इन्हीं स्थानों का प्रयोग होता है। बड़े-बूढ़े दरवाजे के बाहर अपना डेरा डाले रहते हैं और घर की रखवाली के साथ-साथ दुनिय जहान से संबंध भी बनाए रखते हैं। एक प्रवासी का यह सब याद करना नॉस्टेलजिया नहीं है। जया को सुबह-सुबह बरगद के पेड़ पर चिड़ियों की चहचाहट सुनाई देती है, गायों का रंभाना सुनाई देता है। पड़ौसी के यहाँ जलाए गए उपलों की गंध मिलती है। उबलती चाय की खुशबू मिलती है। मिट्टी की गंध है और है सुबह स्कूल जाते बच्चों की शरारतें। सुबह आकर व्यक्ति की सारी तंत्रियों को झंकृत कर देती है। सुबह-सुबह रंग, गंध, ध्वनि, स्वाद, स्पर्श सारी ज्ञानेंद्रियाँ जाग्रत हो जाती हैं। कहानी यहाँ काव्य-गुण समा कर खूबसूरत हो गई है।

मगर यह सब तो पीछे छूटे हुए देश-समाज के चित्र हैं। अतीत में हैं, वर्तमान इसके बिल्कुल विपरीत है। वर्तमान में सुबह सन्नाटे से भरी है। जहाँ सुबह के “उजाले के साथ-साथ हर सुबह एक सन्नाटा भी कमरे के कोने में दुबका पड़ा उठ खड़ा होता था।” रात में भले ही वह दुबका पड़ा रहता है मगर सुबह होते ही वह उठ खड़ा होता है। जया रोज उठ कर सबसे पहले सन्नाटों से समझौता करती है। उसने अभी इन सन्नाटों को अपनाया नहीं है। इनसे सहयोग नहीं किया है बस किसी तरह समझौता किया हुआ है। इससे पता चलता है कि जया अभी तक अमेरिकी जीवन में रची-बसी नहीं है। समझौता मजबूरी की निशानी है। समझौता करना एक अलग बात है, सहयोग, रचना-बसना मन से होता है, जया के साथ अभी तक वह नहीं हुआ है। वह कोशिश करके खुद को बदलने का प्रयास कार रही है मगर अभी तक पूरी तौर पर बदली नहीं है। “वह बंद कमरों वाली जिंदगी की आदी हो गई है। मगर अभी भी दूर-दूर तक फ़ैला सन्नाटा उसे सालता रहता है पर एक चुप-सा समझौता भी उसने कर लिया है।”

अमेरिकी समाज उपभोक्ता समाज है वहाँ रिश्तों पर भी इस उपभोक्तापान की छाप पड़ गई है। जया को लोगों का रिश्ता एक दूसरे से जुड़ता हुआ नहीं वरन एक दूसरे को काटता हुआ लगता है। “आस-पड़ौस से ग्राहक और दूकानदार जैसा रिश्ता उसे काटता ही है लेकिन आदत बनती जा रही है।” वह खुद को इस उपभोक्तावादी समाज के अनुसार ढ़ालने के प्रयास में है मगर अभी तक पूरी तरह ढ़ली नहीं है।

समूह से बिलांग करने पर व्यक्ति की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। हर व्यक्ति को पहचान की आवश्यकता होती है, समूह उसे पहचान प्रदान करता है। पहचान की आवश्यकता आंशिक रूप से एक निजी आवश्यकता है। वह कौन है और क्या बनेगा यह आंशिक रूप से निजी आवश्यकता है परंतु इसके साथ ही यह सार्वजनिक आवश्यकता भी है। जब तक दूसरे न जान लें कि आप क्या हैं, कौन हैं, वे आपसे संबंध नहीं रखेंगे। समूह की सदस्यता व्यक्ति की पहचान की जरूरत को पूरा करती है।

नागरिकता व्यक्ति की राष्ट्रीयता को तय करती है। उसे राष्ट्रीय पहचान दिलाती है। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यक्ति को पहचान देती है। व्यक्ति जो काम करता है उससे भी उसकी पहचान होती है। परिवार व्यक्ति को नाम देता है। इससे परिवार में आपके स्थान, भूमिका को पहचान मिलती है। मगर यह सब पहचान तब स्थापित होगी जब आस-पड़ौस आपको पहचानता है। अपने समूह में आपको शामिल करता है। अगर आपका पड़ौसी ही आप को न जाने-पहचाने तो क्या पहचान की आपकी आंतरिक आवश्यकता संतुष्ट होगी? जया को उसके पड़ौसी जानते-पहचानते नहीं हैं। आस-पड़ौस में उसकी पहचान नहीं है।

समूह व्यक्ति को सुरक्षा देता है। शारीरिक और भावात्मक दोनों प्रकार की सुरक्षा देता है। वक्त जरूरत व्यक्ति पड़ौस से सहायता की गुहार लगाता है। जया के वर्तमान समाज का “हेलो हाय स्टिक नोट की तरह एक तरफ़ से उधड़ी, दूसरी तरफ़ से चिपकी सी मुस्कान व्यक्ति के अस्तित्व को समाप्त कर देती है।” इससे पता चलता है कि सारा प्रयास एकतरफ़ा है। मगर एक हाथ से ताली नहीं बजती है। पड़ौसियों का यह रूखा व्यवहार जया के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा देता है। व्यक्ति का अस्तित्व, उसकी पहचान अपने पड़ौसियों से भी होती है। यह उसके साथ पहली बार नहीं हो रहा है पिछले घर में वह दस साल रही तब भी यही हाल था। हाँ, तब उसके घर के भीतर काफ़ी रौनक थी, उसके अपने बच्चे थे, मगर पडौसियों से कोई रिश्ता न था। दूर से फ़ेंके गए गुल्ली-डंडे जैसा ही था। ऐसा नहीं कि वह अपनी ओर से रिश्ता बनाने की कोशिश नहीं करती है मगर हर बार वही ढ़ाक के तीन पात हाथ लगते हैं। उसका ऐसा प्रयास उसके वर्तमान समाज में बौढ़म की संज्ञा पाता है उसे पुशी का खिताब मिलता है।

जया अपने भारतीय स्वभाव से मजबूर है वह पड़ौसियों को लुभाने के लिए तरह-तरह के उपाय करती है। किसी को मुड़-मुड़ कर देखती है तो किसी को समोसे खिलाती है, हिन्दुस्तानी शाफ़ियों के वीडियो दिखाती है ताकि उनसे रिश्ता बना रहे। मगर इस तरह मतलब पर कायम रिश्ते कितने कामयाब हो सकते हैं। “तू कौन और मैं कौन! एक तरफ़ा फ़ाटक कब तक खुला रह सकता है?”

आवश्यकता और मुसीबत के समय आदमी पड़ौसी को ही पुकारता है, उसे ही अपना त्राता मान कर गुहार लगाता है जया को भी एक बार जरूरत पड़ गई थी और जरूरत पर पड़ौसी सहायता करता भी है। जब उसकी चाबी कार में बंद हो गई थी एक पड़ौसी ने उसकी सहायता की थी। “एक रात जया कहीं से लौटी थी तो उसकी चाबी कार में बंद हो गईए थी। कार में गैराज ओपनर था, इसलिए वह गैराज नहीं खोल सकी। घर की चाबी भी कार की चाबी वाले गुच्छे में ही थी। रात के १० बजे थे। आसपास जंगल जैसा सन्नाटा था। उसी समय सामने वाला कहीं से लौटा था। उस अजनबी पड़ौसी को देखते ही जैसे उसकी जान में जान आ गई थी। ढ़ीठता से बिन पहचान के भी उसने आगे बढ़कर मदद माँग ली थी। इसी सिलसिले में उनके बीच उस दिन नामों का आदन-प्रदान हुआ था।” इससे यह ज्ञात होता है कि पड़ौसी मानवीय हैं। वक्त जरूरत पर गुहार लगाने पर सहायता कर देंगे पर नजदीकियाँ नहीं बनाएँगे। वे बुरे नहीं हैं न ही इंटेंशनली उसे एवायड करते हैं। वे जानबूझ कर उसकी उपेक्षा नहीं करते हैं। उनकी संस्कृति उन्हें किसी की निजी जिंदगी में झाँकने की इजाजत नहीं देती है। इसीलिए वे एक दूसरे को भी नहीं जानते हैं, एक दूसरे की जिंदगी में होने वाली घटनाओं से अनभिज्ञ हैं। इसीलिए जब वह मृत पड़ौसी के बारे में दूसरे पड़ौसी से अता-पता करना चाहती है तो उसे निराशा हाथ लगती है।

जब वह अपनी सहायता करने वाले पड़ौसी रिक को देखती है तो वह उसी से मृत पड़ौसी के विषय में जानकारी लेना चाहती है। “हैलो! कहती हुई जया उसकी ओर बढ़ गई।
यह क्या हुआ...?
वह भौचक्क होकर उसकी ओर देखने लगा, जैसे उसने बहुत ही मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछ लिया हो...”

असल में उसे भी कुछ मालूम नहीं था हाँ वह इतना जानता था कि वे कुछ दिनों से बीमार थे। मगर जया को यह जानकर धक्का लगता है कि बीमारी की बात जानते हुए भी कभी यह व्यक्ति उससे मिला नहीं था। उस आदमी का हालचाल पूछने नहीं गया था। जया इस बार सच में मूर्ख की तरह उस व्यक्ति से पूछती है कि वह बीमारी की बात जानते हुए भी कभी मिलने क्यों नहीं गया। उत्तर सुनकर वह सकते में आ जाती है। रिक कहता है, “यह उनका व्यक्तिगत मामला है।” जया का भारतीय मन इस बात को पचा नहीं पा रहा है कि “बीमार होना, दु:खी होना व्यक्तिगत मामला है! किसी का दु:ख बाँटना व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप हो जाता है।”

पहले “वह सोचती थी कि शायद परदेसी होने के कारण ये लोग हमसे जुड़ नहीं पाते। हमारा रंग, धर्म, संस्कृति बहुत अलग है इनसे; लेकिन इनका तो आपस में भी जुड़ाव नहीं है।”
लोग बाहर ही खड़े रहते हैं जया बीमारी की बात सुन कर कुरेदना चाहती है कि कौन सी बीमारी थी, किस स्टेज पर थी। क्या लापरवाही बरती गई थी या लक्षण पता चलते ही इलाज शुरु हो गया था। वह मृत व्यक्ति की बीमारी के विषय जैसा कि अमूमन भारतीयों की आदत होती है सब कुछ जानना चाहती है उसके इन प्रश्नों के एवज में रिक उसे एक ऐसी दृष्टि से देखता है, “जैसे वह किसी गाँव की उज्जड गँवार औरत हो।”

आज की सुबह से जया की रुटीन में व्यघात उत्पन्न हुआ है। सुबह जब वह बिस्तर में लेटी बहुत देर तक सन्नाटों से समझौते कर रही थी उसने कोई सिसकी कोई आहट या कोई दस्तक नहीं सुनी मगर जब वह उठ कर सुबह का अखबार उठाने गई तो बहुचक रह गई। पड़ौस में फ़्युनेरल वैन खड़ी थी।

कहानीकार जिस दुनिया में रहता है जिस असलियत को जानता-सामझता है, भोगता है वही उसकी कहानियों में विस्तार पाता है। लाहौर – अविभाजित भारत में जन्मी सुदर्शन प्रियदर्शनी सुनेजा काफ़ी समय से अमेरिका में रह रही हैं। अत: स्वभाविक सी बात है वे अमेरिकी समाज का चित्रण अपनी कहानियों में करती हैं। उनकी तरह उनकी कथा नायिका जया का लालन-पालन भारतीय समूहवादी समाज में हुआ है। उसे भारतीय संस्कार, मूल्य, व्यवहार घुट्टी मे मिले हैं। यह दीगर है कि वह अमेरिका में एक प्रवासी के तौर पर रह रही है। यह भी संभव है कि उसने वहाँ की नागरिकता ले ली हो, वह ग्रीन कार्ड होल्डर हो। परंतु क्या पासपोर्ट का रंग बदल जाने से मन भी बदल जाता है? नहीं भारतीय दूसरे देश की नागरिकता ग्रहण कर भी लेता है तो भी उसका उत्साहधर्मी मन दूसरों में भी अपनापन खोजता है। उसका मन, उसकी इच्छाएँ, उसका चाल-चलन भारतीय ही रहते हैं। पहली पीढ़ी चाह कर भी खुद को पूरी तौर पार बदल नहीं पाती है। हाँ दूसरी पीढ़ी, वहीं जन्मी, पली-बढ़ी पीढ़ी की बात और है।

एक भारतीय जब अमेरिका में रहता है तो भारत की सामान्य सामाजिकता के अभाव में उसका मन कितनी भयंकर कसक से गुजरता है, उसे कितनी छटपटाहट होती है इसे दूसरे लोग शायद ही जान-समझ सकें। यहाँ तक कि भारत में रहने वालों के लिए भी यह मात्र दिखावा लग सकता है। भारतीयों का तर्क होता है कि जब वहाँ रहते हुए इतनी वेदना झेल रहे हो तो लौट क्यों नहीं आते हो? वहाँ क्यों लटके हुए हो? किसने कहा था अपना देश छोड़ कर जाने के लिए? पर लौट कर आना क्या इतना आसान है? हाँ संवेदनशील मन अवश्य इस पीड़ा को अनुभव कर सकता है। साहित्यकार से ज्यादा संवेदनशील भला कौन होता है। फिर भले ही वह भारत में रह रहा हो अथवा अमेरिका या फिर दुनिया के किसी भी कोने में। और खुदा न खास्ता कहानीकार भारतीय हो और अमेरिका में रह रहा हो तो क्या कहने। वह स्वानुभूति को इस तरह शब्दों में पिरोता है, कहानी में ढ़ालता है कि इसे पढ़ कर पाठक प्रवासी भारतीय मन को गहराई से समझता है, उससे जुड़ता है और अपनी संवेदना का विस्तार पाता है।

सुदर्शन सुनेजा की अखबार वाला एक ऐसी ही कहानी है जो प्रवासी भारतीय स्त्री मन की कसक, उसकी छटपटाहट को शब्द में ढ़ालती है। जया इसी ऊहापोह के कारण अंदर-बाहर कर रही है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि उसके स्वसुर का जीवन दर्शन सही है जो बिना किसी जान-पहचान के एक व्यक्ति की मृत्यु की खबर सुनते ही उसके घर पर अपनी संवेदना प्रकट करने चल देते हैं अथवा इन अमेरिकी लोगों का जीवन दर्शन उचित है जो पड़ौसी की मौत पर एक शब्द नहीं कहते हैं एक आँसू नहीं गिराते हैं। कहानी की पंक्तियाँ इस द्वंद्व को रेखांकित करती हैं। यह भावात्मक जीवन के केवल क्षरण की नहीं वरन भावात्मक जीवन के अभाव की कहानी है। अजनबीपन और संवादहीनता से उत्पन्न त्रास की कहानी है।

और अब “वह हर दिन सोचती है कैसी है यहाँ की जिंदगी। यहाँ के ताबूतगाह की तरह खड़े साफ़-सुथरे घर...जिनमें कोई चहल-पहल नहीं। एक सन्नाटे में लिपटी हुई ये इमारतें जैसे धीरे-धीरे सुबकती रहती हों बेआवाज।” ऐसा नहीं है कि अमेरिका में चहल-पहल नहीं है मगर घरों में नहीं है वह है बागों में, बाजार में नदी-समुद्र के किनारों पर।

उसका पड़ौसी मर गया है पड़ौसी के घर के सामने फ़्युनेरल वैन खड़ी है मगर किसी को आहट तक नहीं मिलती है। “चारों ओर पूरी तरह सन्नाटा था। एक भी व्यक्ति नहीं था। आसपास आने-जाने वाले भी फ़्युनेरल वैन को देख कर रास्ता बदल रहे थे। कहीं किसी खिड़की से कोई चेहरा नहीं झाँका। किसी आगन में बँधा कुत्ता तक नहीं भौंका।”

जया का मरने वाले से बड़ा झीना-सा रिश्ता था। “जया का मरने वाले से कोई नाता कोई पहचान तक नहीं थी। नाता सिर्फ़ इतना था कि हर सुबह वह उस सामने वाले घर से एक लंबे-लंबोत्तरे चेहरे वाले सौम्य व्यक्ति को अखबार उठाते देखती और उस लॉबी में झुक कर अखबार उठाते हुए – कभी-कभी दूर से नजरों का धुँधला सा टकराव होता और औपचारिकता से आधा उठा हुआ हाथ हेलो में हिलता। एक कंपित सी मुस्कान शायद दोनों तरफ़ होती...या नहीं – याद नहीं। बस इतनी सी पहचान थी। इतना सा नाता था। इस पहचान में कहीं भी अपनत्व या पड़ौसीपान नहीं था।”

फिर क्यों इस व्यक्ति की मृत्यु से विचलित है जया? कहानीकार वहीं इसका उत्तर देता है, “बस एक ही योनी के प्राणी होने का आभास पूरा होता था। जंगल में जानवर भी इस रिश्ते को अपने ढ़ंग से अवश्य निभाते होंगे।” एक ही योनी का प्राणी होने का उनका नाता था क्या यह कम बड़ी बात है?
एक दिन वह अपने ससुर को बाहर जाते देखती है और पूछती है, “आप कहाँ जा रहे हैं पिताजी... उसने अपने ससुर को गले में साफ़ा ओढ़ कर बाहर जाते देखा।
तुम्हारी गली के आखरी मकान में किसी का देहांत हो गया है। इस सैक्टर का पोस्ट मास्टर था वह शायद। जया ने हुंकारा भरा। अंदर ही अंदर वह दहल गई, धर्मपाल अंकल! वह थोड़ा-थोड़ा उन्हें जानती थी। पर माँ-बाबूजी तो पहली बार इस घर में आए हैं –
किसी आत्मा को अंतिम सत्कार देने के लिए जानना जरूरी नहीं बेटा और वह चले गए।
उसे याद है वे भूखे प्यासे तीन-चार घंटे बाद लौटे थे।” यह बात तब की है जब वह भारत में थी।

वह भी अपने पड़ौसी का नाम नहीं जानती थी मगर उसकी मृत्यु पर वह छटपटाती है उसे अफ़सोस होता है कि क्यों नहीं वह उसे जान सकी। क्या एक ही योनी के प्राणियों को एक दूसरे को नहीं जानना चाहिए?

मृत्यु के आसपास सन्नाटा होता है मृत्यु स्वयं सन्नाटा है आश्चर्य नहीं कि अखबारवाला कहानी में अनेक बार इस शब्द का प्रयोग हुआ है। पड़ौसी की मृत्यु जया को अस्तित्वगत उद्विग्नता से भर देती है। एक त्रासद स्थिति का सामना कर रही है वह। वह विकल हो रही है उसके मन को कहीं कूल-किनारा नहीं मिल रहा है। “जया हताश होकर अंदर लौट आई। उसे याद नहीं पड़ा कब उसने गैस ऑन कर दी थी। चाय का पानी सूख कर चुप हो गया था और केतली के तले की जलने की बदबू आ रही थी। उसने झपट कर गैस बंद कर दी। अब चाय की इच्छा जाती रही थी। वह कमरे में अनमनी सी चक्कर काटने लगी।” इन वाक्यों से उसकी उद्विग्न मन:स्थिति का पता चलता है। वह कमरे में बेचैनी के साथ कभी दाएँ तो कभी बाएँ घूमस्ती है। बीच-बीच में खिड़की से स्थिति का अनुमान भी लेती है। उसका भारतीय मन मृत्यु पर दो आँसू गिरने की प्रतीक्षा करता है। “पता नहीं क्यों उसे इंतजार है कुछ सिसकियों का...जो उनकी मृत्यु को कहीं शृंगारित (मेरे विचार से यहाँ शृंगारित के स्थान पर ‘गरिमा प्रदान’ अधिक उपयुक्त शब्द होता) कर सकती है। मगर जब जया वैन के पास पहुँचती है तो पाती है शरीर अअंदर रखा जा चुका था। “वह लंबा, छरहरा, लंबोतरे मुँह वाला व्यक्ति नहीं – अब केवल शरीर था जिसे अंतिम बार देखने का अवसर भी मिट चुका था।”

जीवन की यांत्रिकता के दौरान – रोज सुबह अखबार उठाने की प्रक्रिया के दौरान ही जया का अपने पड़ौसी से केवल आभासी सा परिचय हुआ था, “जया का मरने वाले से कोई नाता कोई पहचान तक नहीं थी। नाता सिर्फ़ इतना था कि हर सुबह वह उस सामने वाले घर से एक लंबे-लंबोतरे चेहरे वाली सौम्य व्यक्ति को अखबार उठाते देखती और उस लॉबी में झुक कर अखबार उठाते हुए – कभी-कभी दूर से नजरों का धुँधला सा टकराव होता और औपचारिकता से आधा उठा हुआ हाथ हैलो में हिलता। एक कल्पित सी मुस्कान शायद दोनों तरफ़ होती थी... या नहीं – याद नहीं। बस इतनी सी पहचान थी, इतना सा नाता था। इस पहचान में कभी अपनत्व या पड़ौसीपन नहीं था।” कोई अपनापन नहीं है रिश्तों में मात्र नजरों का टकराव है वह अभी स्पष्ट नहीं है धुँधला सा है। मात्र औपचारिक संबंध है और इसी औपचारिकता के नाते वे एक दूसरे को हाथ उठा कर हैलो करते हैं मगर वह भी पूरे मन से नहीं किया जाता है हाथ पूरा और जोर शोर से गर्मजोशी से नहीं उठता है। आधा हाथ उठना हिचक और बेमनपने-अनमनेपन का प्रतीक है। मुस्कान का भी पता नहीं कि वह है अथवा नहीं है। उसका कोई ठोस सबूत नहीं है मात्र कल्पना है कि अभिवादन किया जा रहा है तो मुस्कान भी होगी ही। इस तरह के व्यक्ति का होना या न होना बहुत मायने नहीं रखता है। जया भी उसे तब तक मिस नहीं करती है जब तक कि उसे उसकी मृत्यु का पता नहीं चलता है।

आज की घटना के बाद जया को याद आता है कि उसने पड़ौसी को कुछ दिनों से अखबार उठाते हुए नहीं देखा था। आज उसे उस व्यक्ति का चेहरा-मोहरा, रूप रंग, चाल-ढ़ाल सब याद आ रहा है, “वह उम्र के अधेड़ मोड़ पर बालों में हल्की बर्फ़ की फ़गुनियों सी सफ़ेदी लिए, शांत व्यक्ति को देखती थी। गंभीर चेहरा – कभी ऐनक की कमानी आँखों से उतर कर गले में लटकती तो कभी आँखों को संभालने कानों पर चढ़ी हुई होती। लंबी लंबोदरी सी टीशर्ट और घुटनों से ऊपर उठी हुई निक्कर।” मरने वाले की यही छवि उकेरी है कहानीकार ने। एक नेक इंसान की छवि। अर्थात आदमी बुरा नहीं था दिल का। एक सुबह जया देखती है कि इस अधेढ़ व्यक्ति के दरवाजे पर क्यूनेरल वैन खड़ी है और उसे इसकी आहट तक नहीं मिलती है। कहानी एक स्थान पर बताती है कि इस आदमी का एक बेटा भी था। मगर जया उसे कहीं नहीं देखती है।

यहीं अमेरिकी रहन-सहन की विडंबना को भी उकेरा गया है। जहाँ चारों ओर नंगई दीखती है। “यहाँ पूरा ढ़ँका नाईट सूट या गाउन पहन कर बाहर निकलना गलत – किंतु शर्मनाक अधनंगी देहों की सड़क पर प्रदर्शनी उचित।” जया के माध्यम से कहानीकार ऐसे विरोधाभासों को लेकर मन ही मन झींकती है। अब चूँकि जया भी इसी परिवेश में रह रही है अत: जैसा देश वैसा वेश के कारण वह भी चाहे जितनी भी सुबह हो कभी नाईट सूट पहन कर बाहर अखबार उठाने नहीं निकलती है।
मनोविज्ञान कहता है जब तक व्यक्ति के भीतर कौतुहल, जिज्ञासा है उसका विकास होता रहता है, उसका सीखना जारी रहता है। जया के भी तरह अपने पड़ौसी को जानने की इच्छा है भले ही इसे अमेरिकन संस्कृति में निजी जीवन में हस्तक्षेप की संज्ञा दी जाती हो। वह अपने पड़ौसी की गतिविधियों को जाने-अनजाने देखती रहती है और उसी के आधार पर अपनी कल्पना के बल पर उसके जीवन का चित्र खड़ा करती है। वह जानना चाहती थी कि वे इतने चुप-चुप और अकेले क्यों रहते थे? क्या काम करते होंगे? किसके साथ और कैसी बातें करते होंगे? “कभी-कभी उसने उस व्यक्ति को सांय समय दफ़्तर से लौट कर, कार को गैराज में पार्क करने के बाद अपनी डाक खंगालते देखा है – बिना इधर-उधर मुँह मोड़े और फिर अपने घर के अंदर शाम के सूरज की तरह अस्त होते...” इससे पता चलता है कि उनका कोई सगा-संबंधी-मित्र उनसे दूर रहता है जिससे उनका पत्राचार है। उनके घर में कभी किसी को आते-जाते भी नहीं देखा गया था। यहाँ वे नितांत अकेले रहते थे। जया को यह भी आश्चर्य की बात लगती है क्योंकि अमेरिका में लोग बढ़ी उम्र के बावजूद अपना साथी खोज ही लेते हैं। “इस देश में पुरुष अकेला रहता रहे – इस देश की सुनी-सुनाई ऋचाओं से कुछ अलग लगता था।” मगर जया की जिज्ञासा मिटाए बिना ही यह व्यक्ति चला गया। आज जया के मन में इस व्यक्ति को लेकर तमाम तरह के ख्याल आ रहे हैं। शायद वह उनके माध्यम से अमेरिकी पुरुष के विषय में कोई राय बनाना चाहती थी। दूसरों के विषय में मनचाही राय कायम करना भी भारतीय मानसिकता की एक विशेषता है। पहले कभी उसने इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था और अब जानने का कोई उपाय न था। जितना ही वह उनके विषय में सोचती है उतना ही भावुक होती जाती है। उसके भीतर उनके लिए एक दयार्द्र-सी व्यथा उभर आती है। कुछ न लगते हुए भी वे उसके लिए एक मानवीय आर्द्रता छोड़ जाते हैं। उसका मन विगलित है। उसकी आँखें बेबस नम हो आती हैं।

संवेदनाओं से भरी हुई जया किसी से बात करना चाहती है, किसी से अपनी भावनाएँ साझा करना चाहती है। किसी के सामने अपना मन खोल कर हल्की होना चाहती है। भावनाओं की सांद्रता उससे सहन नहीं हो पा रही है, वह बेकल है “पर किसी ने उसकी ओर देखा तक नहीं, नजर तक नहीं उठाई, बात करना तो दूर की बात थी...” एक आम भारतीय रिश्तों में जीता है रिश्तों के सहारे जीता है। जया कयास लगाती है, “एक पुत्रनुमा लड़का (जया ने ही उनके नाम रिश्ते तय कर लिए थे) कॉफ़ी के मग को बनेरे पर रखे दूसरे हाथ से सिगरेट के लंबे कश खींच रहा था और आकाश की ओर मुँह उठाकर धूएँ की लकीरें बना रहा था...” वह अपनी ओर से उन्हें रिश्तों में बाँधती है। वह अमेरिकी लोगों के व्यवहार को समझ नहीं पाती है और उनका मूल्यांकन अपने हिसाब से करती है। वह इस बात को लेकर भी स्पष्ट नहीं है कि अमेरिकन जीवन पद्धति सही है अथवा उसका भारतीय नजरिया उचित है। “उसे कई बार लगता रहा है कि यहाँ के लोग साधू-संतों जैसे हैं। उन्हें हमारी तरह दु:ख-दर्द शायद नहीं व्यापता है। ये लोग दु:ख में हमारी तरह चीखते-चिल्लाते नहीं हैं। मौत पर आँसू तक किसी विशेष हिसाब से निकालते हैं। हमारे यहाँ भावनाओं का, स्मृतियों का, रिश्तों का, रिवाजों का जैसे अंधड़ फ़ूट पड़ता है – अपनी पूरी उद्दाम छलांगों और छपाकों के साथ। दहाड़ते समुद्र की बेसुध-पागल-ज्वार-भाटा सी बेचैन लहरों सरीखा। जिससे गली-मुहल्ला, घर-मकान, व्यक्ति अपने-पराए एक बार सभी डूब जाते हैं। कई-कई दिनों बल्कि सालों तक कुछ रिवाजों, नीतियों का आडंबरों समेत निर्वाह चलता रहता है। हमारी सदियों से आत्मसात की हुई दार्शनिकता “नैनं छिंदंति शस्त्राणी नैनं दहति पावक” धरी की धरी रह जाती है। हम उम्र भर उस जाने वाले को जाने नहीं देते। कहीं समेट-समेट कर रखते हैं। श्राद्ध न किया, पुत्र ने कंधा न दिया, अग्नि न दी तो मुक्ति न हुई। फिर भी हमारी मुक्ति नहीं होती है। पर यहाँ जीवन को केवल जीवन समझ कर जिया जाता है। वह भी पहले अपने लिए...केवल अपने लिए। ठीक, स्वस्थ भरपूर सुविधाओं से भरा-पूरा होना – जीने की अनिवार्य शर्त है। उसके बाहर सब मिथ्या है।”

अमेरिकी समाज में सारी भौतिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हैं, विज्ञान के विकास से उपलब्ध हर सुविधा वहाँ व्यक्ति के लिए सुलभ है मगर क्या विज्ञान के विकास के साथ व्यक्ति के आंतरिक जगत का भी विकास हुआ है? क्या वह भीतर से भी भरा-पूरा है। यदि हाँ तो यह भरा-पूरापन बाहर क्यों नहीं छलकता है? क्यों नहीं अपने पास-पड़ौस में उपलाता है? वह क्यों इतना रूखा-सूखा और संवादहीन है? क्यों वहाँ जीवन इतना यांत्रिक है? मानवीय संबंधों की गर्माहट क्यों नहीं है? मानवीय संवेदनाओं का अभाव क्यों है? कहानी अखबार वाला’ इन्हीं प्रश्नों से जया की छटपटाहट के माध्यम से रू-बरू होती है। अनजाने में वह बार-बार भारत के जीवन की पृष्ठभूमि में अमेरिकी जीवन को देखती है।

जया बरसों अमेरिका में रहने के बाद भी अभी तक स्वयं को अमेरिकी नहीं मानती है इसीलिए अमेरिकन के लिए ‘उन्हें’ और अपने लिए ‘हमारे’ जैसे शब्दों का प्रयोग अपने सोच-विचार के समय करती है। वह ऊहापोह से घिरी हुई है और तय नहीं कर पाती है “कि कौन-सी दार्शनिकता ढ़ोकर चलना – जीवन के प्रति सच्चाई है।” उसकी जड़े अमेरिका में अभी तक नहीं जमीं हैं मगर भारत से उसकी जड़ें उखड़ चुकी हैं, अन्यथा वह दार्शनिकता को ढ़ोने की बात न सोचती क्योंकि दार्शनिकता ढ़ोने की बात नहीं है। वह इतनी भारी और बोझिल नहीं है कि उसे ढ़ोने की आवश्यकता पड़े। नैनं छिंदंति का मतलब यह नहीं होता है कि हम मनुष्य से लगाव न रखें। वह कन्फ़ूज है क्योंकि एक ओर उसे भारतीयों का शोक में डूबना, रोना-धोना आकर्षित करता है वह वही सब भावनाएँ, भावनाओं का खुला प्रदर्शन अमेरिका में और अमेरिकनों से भी चाहती है दूसरी ओर भारतीय संस्कृति में अंतिम संस्कार से जुड़े सालों साल चलने वाले रीति-रिवाज उसे आडंबर लगते हैं। एक ओर वह अमेरिकन जीवन में दु:ख-दर्द न व्यापने को लेकर परेशान है, दूसरी ओर भारत में जाने वाले को न जाने देने की आलोचना भी कर रही है। वह चाहती है कि मरने वाले के संबंध में लोग उससे बातें करें उसकी जिज्ञासाओं को शांत करें और उसे भारतीयों द्वारा मरे हुए व्यक्ति की स्मृतियों को समेट-समेट कर रखना खलता भी है। उसे आश्चर्य है कि अमेरिकन मृत्यु पर वैसा रोना-पीटना क्यों नहीं करते हैं जैसा कि भारतीय करते हैं, साथ ही उसे यह भी मलाल है कि भारत में हम मरने वाले को उमर भर अपने से दूर जाने नहीं देते हैं।

एक अनजान-अजनबी व्यक्ति जिससे उसका बड़ा झीना-सा नाता था जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो जया का हृदय उसके लिए भर आता है उसकी आँखें नम हो जाती हैं वह उसके अकेलेपन और बीमारी की बात जानकर उद्विग्न हो उठती है यह दिखाता है कि मानवता अभी मरी नहीं है। किसी ने कहा भी है कि जब तक एक भी आँख में आँसू शेष है मानवता मर नहीं सकती है। यह मानवता के जीवित रहने के विश्वास की संवेदनशील कहानी है।

लेखिका के विषय में- लॉयोला कॉलेज ऑफ एजुकेशन में वरिष्ठ व्याख्याता प्रो. विजय शर्मा, हिंदी के प्रवासी साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में जाना माना नाम है। वे अध्यापन के साथ-साथ समीक्षा, कहानी लेखन व अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय हैं।