इक्कीसवीं शती की प्रवासी महिला कथाकार- डॉ. मधु संधु

उषा प्रियंवदा
आज प्रवासी भारतीय विश्व के १६८ देशों में फैले हैं। लाखों की संख्या में विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय वहां की औसत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व भी करते हैं और उन देशों की आर्थिक राजनैतिक नीतियों को दशा और दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहे हैं। प्रवासी भारतीय मजदूर, व्यापारी, शिक्षक, अनुसंधानकर्त्ता, डाक्टर, वकील, प्रबंधक, प्रशासक आदि के रूप में पूरे विश्व में स्वीकृत हैं। उनके साथ उनके परिवार भी विदेशों में हैं। अपनी परिश्रम की प्रवृत्ति, लगन और शैक्षणिक योग्यताओं के कारण उन्होंने वहां विशिष्ट स्थान बनाए हैं। सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्रा में भारत की छवि ने प्रवासी भारतीयों का कद ऊॅंचा कर दिया है।

प्रवासी भारतीयों की हिन्दी कहानी साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता उनके संकलन, देश और नेट की भिन्न पत्रिकाएँ और ब्लॉग स्पष्ट करते हैं। प्रवासी महिला कहानीकारों की इस विधा को देन अप्रतिम है। प्रवासी महिला कहानीकारों में प्रथम नाम उषा प्रियंवदा का ही आता है। विदेश जाने के बाद उनका कहानी संग्रह एक कोई दूसरा १९६६ में प्रकाशित हुआ, जबकि उनकी ''एक कोई दूसरा'' कहानी मई १९६१ में 'नई कहानियाँ' में प्रकाशित हो चुकी थी। यानी प्रवासी महिला कहानीकारों की प्रथम कहानी का श्रेय 'एक कोई दूसरा' को ही जाता है। २१वीं शती की प्रवासी महिला कहानीकारों में अमेरिका से सुषम बेदी, इला प्रसाद, इंग्लैंड से उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर, कादंबरी मेहरा, डेनमार्क से अर्चना पेन्यूली आदि बड़े वेग और गाम्भीर्य से लिख रही हैं। 

सुषम बेदी
१९४६ में पंजाब फिरोजपुर में जन्मी सुषम बेदी ने १९७८ से लिखना आरम्भ किया। वह कहानीकार के अतिरिक्त उपन्यासकार एवं कुशल अभिनेत्री भी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. ए. एवं पंजाव विश्वविद्यालय से नाटक साहित्य पर पीएच. डी. करने के पश्चात् उन्होंने १९७५ तक दिल्ली विश्वविद्यालय में ही अध्यापन किया और फिर पति के साथ ब्रसल्ज़ (बेल्जियम) आ गई। १९७८ से सुषम कोलम्बिया विश्वविद्यालय अमेरिका में हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्यापन से जुड़ी हैं। सुषम का प्रथम कहानी संग्रह चिड़िया और चील १९९५ में प्रकाशित हुआ और दूसरा कहानी संग्रह सड़क की लय २००७ में, जबकि कहानी लिखना उन्होंने १९७८ से ही शुरू कर दिया था। 

सुषम बेदी का विषय प्रवासी भारतीयों की मानसिकता, सांस्कृतिक और पीढ़ीगत अंतराल को परत दर परत खोलना है। दो संस्कृतियों के बीच पिस रहे संवेदनशील व्यक्ति को उन्होंने बड़ी ईमानदारी से चित्रित किया है। सांस्कृतिक स्तर पर प्रवासी विधवा रतना का विसंगत क्लोज अप सुषम बेदी की गुनाहगार में मिलता है। गुनाहगार में बच्चों की विदेश में शादी के बाद साठ वर्षीय रतना माँ न रह कर एक मुसीबत, मसला, समस्या बन जाती है। बेटे, बेटियाँ, बहू, बहन, बहनोई उसे पुनर्विवाह के लिए विवश कर रहे हैं। बेटा, बेटी, बहन, सभी इस देश में हैं, पर किसी के पास भी रहना अपनी मिट्टी पलीत करवाना है। बहू कहती है, यूअर मदर शुड हैव हर ओन इंडिपैंडेंट लाइफ। मेरी माँ ने भी तो दूसरी शादी की है... यहाँ जो रहता है, उसे यहाँ के रीति रिवाजों के अनुसार चलना पड़ता है। बेटी कहती है, मेरी सहेली की माँ तो अस्सी की होने वाली है। वह छिआसी वर्ष के अपने एक पड़ोसी के साथ जुड़ गई है। वह देश जहाँ वृद्ध विवाह अनाचार माना जाता था, वहाँ बच्चे ही उसका वैवाहिक विज्ञापन समाचार पत्रों में दे उसके लिए वर खोज रहे हैं और माँ को बेटे बेटियों द्वारा रचे गए इस स्वयंवर से घिन आती है। उनकी सड़क की लय में दो संस्कृतियों के अंतर को बड़े प्रतीकात्मक ढंग से समझाया गया हैं। गाड़ी चलाने के लिए सड़क की लय समझना जरूरी है और जीने के लिए भारतीय संस्कृति की लय पहचाननी अनिवार्य है।

उषा राजे सक्सेना
उषा राजे सक्सेना विगत तीन दशकों से इंग्लैंड में हैं। प्रचार प्रसार से जुड़ी उषा राजे सक्सेना का लेखन साउथ लंदन की स्थानीय पत्रिकाओं एवं रेडियो प्रसारण द्वारा २० वीं शती के आठवें दशक से प्रकाश में आया। वे ब्रिटेन की एक मात्र हिन्दी पत्रिका पुरवाई की सह-सम्पादिका तथा हिन्दी समिति यू. के. की उपाध्यक्षा हैं। काव्य संग्रहों के अतिरिक्त उनके दो कहानी संग्रह प्रवास में तथा वर्किंग पार्टनर मिलते हैं। मिट्टी की सुगंध में उन्होंने ब्रिटेन के भारतवंशी १७ लेखकों की कहानियाँ संकलित की हैं। उनके प्रयास बाल मनोविज्ञान का संस्पर्श करने के हैं।

उषा राजे सक्सेना की ''वह रात'' में जिस्म फरोशी करने वाली माँ का कत्ल हो जाता है और उसके चारों बच्चे अलग-अलग संरक्षकों के यहाँ भेज दिए जाते हैं। वह रात उन भारतीय मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन के लिए खिड़कियाँ खोल रही है, जो कहते हैं कि विदेशों में पैसा है, रोजगार है समृद्धि है और इनसे सारे सुख खरीदे जा सकते हैं। उनकी ''मेरा अपराध'' ब्रिटेन के उन्मुक्त यौन और बच्चों के असुरक्षित भविष्य की कहानी है। नायिका स्टेला रोजर्स के पाँच भाई-बहन हैं। सभी भूरी नीली आँखों और गोरे रंग के हैं। उसकी काली आँखें और गंदुमी रंग ब्रिटेन के नस्लवादी चिंतन में उसका जीवन विषम बना देता है। माँ को अपने से फुरसत नहीं। पितानुमा आदमी उसे सिर्फ दुत्कारता है। नानी उसे बेटी के दुर्भाग्य का कारण मानती है और जरा सी बच्ची स्टेला पराएपन की नियति ढोने के लिए अभिशप्त है। गरीबी के कारण उसे और उसके भाई-बहनों को सोशल कस्टडी में रहने की आदत हो गई है। माँ के लिए बच्चे चिलड्रेन अलाउंस और सोशल लाभांशों के मोहरे हैं। पिता के न लौटने, नानी के वृद्धाश्रम में जाने और माँ के फिर से गर्भ धारण करने पर बच्चे सोशल कस्टडी में आते हैं और फिर अपनी नीली आँखों, गोरे रंग और सुनहरे बालों के कारण अमीर लोगों द्वारा गोद ले लिए जाते हैं। सिर्फ स्टेला ही है जिसे कोई गोद नहीं लेता। रेसिज्म की शिकार और बार बार अनाथालयों से विस्थापित होने के कारण स्टेला हमेशा असुरक्षित ही महसूस करती है। सोलह साल की होने पर उसे अपराधी प्रवृति की किशोरियों के साथ रहने के लिए असेसमेंट सेंटर भेज दिया जाता है। स्टेला उस संस्कृति की देन है, जहाँ बच्चों को माँ- बाप का अभिभावकत्व कभी नसीब नहीं होता। बिट्रेन में बच्चों के लिए एक स्थिति सौतेले को झेलने की भी रहती है। स्टेला के पिता की तरह सभी सौतेले पिता बुरे नहीं होते।

उनकी डैडी कहानी बेइन्तहा प्यार करने वाले सौतेले पिता की है। वह तीन वर्ष की थी, जब माँ ने यह विवाह किया था। माँ की मृत्यु के बाद नायिका अपने बायलाजिकल पिता की खोज में निकलती है, स्पेन में उसके घर सप्ताह भर रुकती भी है, लेकिन सौतेले पिता का प्यार, विश्वास और सहृदयता ही उसके जीवन की पूंजी हैं। अस्सी हूरें, शिराज और जूलियाना में बेहद संवेदनशील बच्चों के जेहाद के नाम पर हो रहे शोषण की कहानी है। इंग्लैंड में ५६ मिन्ट के अंदर चार बम धमाके होते हैं। जन जीवन ठप्प हो जाता है। ५० लोग मर जाते हैं। ७०० घायल होते हैं और सैंकड़ों सुरंग के नीचे दब जाते हें। हादसे की शिकार आपातकालीन अध्यापिका जूलियाना जानती है कि उसकी बस में बैठा नितांत संवेदनशील शिराज ही मानव बम बना है। वह पढ़ाई छोड़ दो साल के लिए पाकिस्तान जाकर आतंकवादी प्रशिक्षण लेकर आया है। उसे अस्सी हूरों का सब्ज बाग दिखाकर जेहाद के लिए आतंकवादियों द्वारा तैयार किया गया है।

दिव्या माथुर
दिल्ली में जन्मी दिव्या माथुर ने अंग्रेजी में एम. ए. के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा किया और चिकित्सा आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन किया। १९८५ में आप भारतीय उच्चायोग से जुड़ीं। १९९२ से नेहरु केंद्र के वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर हैं। अनेक कहानियाँ और कविताएँ ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकी है। कई पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक मंडल में है। कुछ कविता संग्रहों के अतिरिक्त आक्रोश कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है और इस पर पद्मानन्द साहित्य सम्मान भी मिल चुका है। ओडेस्सीः स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ सेटलड एबरॉड तथा आशाः स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज अंग्रेजी में सम्पादित संकलन हैं। लंदन में कहानियों के मंचन की शुरूआत का सेहरा दिव्या के सिर ही जाता है।

दिव्या माथुर की कहानियाँ उस स्त्री का चित्रण करती है, जिसके लिए देश या विदेश सब यातना शिविर हैं। सब विसंगत हैं। सर्वत्र आकाश से गिरा खजूर पर अटका वाली स्थिति है। उन्होंने ब्रिटेन की रंगीनी नहीं, धूमिल छवि प्रस्तुत की है। दिव्या माथुर की लम्बी कहानी ''बचाव'' में निम्न मध्यवर्गीय निंदिया अपनी सहेली रूपा शाह की मदद से असंगत वैवाहिक रिश्ते से बचाव के लिए इंग्लैंड पहुँचती है, लेकिन पराई जमीन की असंगतियाँ और भी वीभत्स हैं। दिव्या तीन सौ पाउण्ड के सीमित वेतन से जीवन यापन करने को विवश है। पाँच साल से वेतन नहीं बढ़ा और न ही आगे बढ़ने की संभावना है। गरीबी इतनी है कि वह खिड़की पर लगे साइज से कहीं बड़े मैले चीकट प्लास्टिक के परदे को काट कर इसलिए छोटा नहीं कर सकती कि अगर कभी कमरा बदलना पड़ा और नए कमरे की खिड़की लम्बी हुई तो नया परदा कहाँ से आएगा ? ठंड के दिनों निंदिया सड़कों और स्टेशन पर भिखमंगों को गर्मकोट, मफलर, दस्तानें पहने देखती है, तो अपना कम वेतन मनःस्थिति को दयनीय बना देता है। सर्दी से बचाव के लिए कोट लेती है तो धीरूबेन किसी मृतक का कह उसे सिहरा देती है। आक्सफेम से पुराने जूते, दस्तानें, मफलर आदि खरीदती है, तो उन्हें पहनते ही असहज हो उठती है। दोपहर को लोग भोजन करते हैं और वह तले आलुओं से पेट भरती है। ट्रेन में चढ़ती है तो उसका सफर अधिकतर डंडे पर लटकते ही व्यतीत होता है। एक स्वप्न है कि निंदिया अलग घर लेगी, जब चाहेगी बत्ती बुझाएगी, मन पसंद संगीत सुनेगी, माँ-बाबा को स्वेटर और पैसे भेजेगी। निंदिया जैसे आपातकालीन कर्मचारियों को बीमारी की छुट्टी तो क्या, सप्ताहांत पर वेतन भी नहीं मिलता। स्थानीय कर्मचारियों से बड़े साहब हैलो करना भी पसंद नहीं करते। मेनका हो या निंदिया - अधिकार औरत को परोसने की चीज ही समझते हैं। एक समय था कि हीरे मोती दान करने से किस्मत खुल जाती थी, अब तो साहबों को ताजा मादा गोश्त चाहिए। कहानी की धीरूबेन ‘सहारा महिला संगठन’ की मैनेजर है। उन्हें स्पष्ट है कि भारतीय महिलाएँ जहाँ भी जाएँगी, रहेंगी भारतीय ही। ससुराल वाले उन्हें नौकरानी से अधिक नहीं समझते। घर दुकान- सब संभालने के बावजूद उन्हें पति की गालियों और घूँसों का शिकार होना ही है। भारत से जो अधिकारी वहाँ आते हैं, उनके लिए औरत कर्मचारी या अधिकारी नहीं, सिर्फ शरीर है।

दिव्या माथुर की उत्तरजीविता की नायिका एक सुबह ऑफिस के लिए निकलती है तो देखती है कि बीच आँगन में मृत चुहिया पड़ी है। मृत चुहिया को देखकर उसका मस्तिष्क भिन्न संस्कृतियों, अंध विश्वासों, आस्थाओं, मान्यताओं एवं राष्ट्रीय चरित्र आदि का अवलोकन करने लगता है। कभी सोचती है कि चुहिया किसी अशुभ घड़ी का संकेत तो नहीं। कभी चुहिया की की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करती है। याद आता है कि दिल्ली वाले घर में चाचा चूहे मार देता था और दादी इसे पाप कहती थी। दादी चुहिया की जून को पिछले जन्म के पापों का फल भी कहती थी औार तब चाचा चुहिया को इस जीवन से मुक्त कर अपने इस कृत्य को पुण्य बटोरने का साधन कहता था। नायिका के आवास के लीचे अफ्रीकी और पड़ौस में अंग्रेज महिला रहती है। अफ्रीकी सबसे अधिक माँस खाते हैं और घर के बाहर कभी सफाई नहीं करते, जब कि डेनमार्क के लोग आँगन के साथ साथ अपनी पगडंडियों को बुहारते बुहारते सड़क तक आ जाते हैं। वह अंग्रेज जो कभी भारतीयों को घर इसलिए किराए पर नहीं देते थे कि उनसे हर समय अदरक लहसुन की गंध आती रहती है, आज हर भारतीय रेस्टोरेंट को घेरे मिलते हैं। यहाँ लोग बिल्लियाँ पालने में खासी दिलचस्पी रखते हैं। क्योंकि बिल्लियाँ चूहों की भी सफाई कर देती हैं और अकेलेपन से भी छुटकारा दिलाती हैं। हर देश का अपना राष्ट्रीय चरित्र होता है। भारतीय अपने बंधुयों को देख भले ही दरवाजे बंद कर लें, पर अंग्रेजों को देख बिछ-बिछ जाते हैं। भारत में तो किसी को पाँच रूपये देकर भी चुहिया को उठवाया जा सकता था, पर इंग्लैंड में पाँच पाउण्ड में भी काम नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ रिश्वत जुर्म है। भारत की तरह नहीं कि हर होली दीवाली पर नौकरों-जमादारों की मौज होती रहे। भारतीय मूल के पति और बच्चे खट से माँ और बीवी को दोषी ठहराने के इलावा अंगुली भी नहीं हिलाते। अंग्रेजों के बच्चे छोटी उम्र में ही काम पर लग जाते हैं और पढ़ाई के नाम पर जी. एस. ई. कर लें तो गनीमत। वे चोरी- डाकैती में भी पड़ जाते हैं, जबकि भारतीय बच्चे माँ बाप द्वारा जुटाई सुविधाओं पर खूब पढ़ते हैं।

इला प्रसाद
इला प्रसाद का जन्म २१ जून १९६० को झारखंड की राजधानी रांची में हुआ। रांची विश्वद्यिालय से भौतिकी में स्नातकोत्तर के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की। प्रथम कहानी ''इस कहानी का अंत नहीं'' जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई। उसी वर्ष अमेरिका आने पर यह सिलसिला अविरल बना रहा। संग्रह धूप का टुकड़ा प्रकाशनाधीन। उनकी ई-मेल पत्रचार में छिपे विभ्रम को स्पष्ट करती है। बनारस से अमेरिका पहुँची नायिका को अकसर जय के मेल आते हैं। नायिका इसे अपनी मित्र वंदना का छोटा भाई समझती है, लेकिन स्थिति स्पष्ट होने पर पता चला है कि इतिफाक ही था कि दोनों भाई-बहन के नाम और स्थितियाँ एक सी थी। उनकी लौटते हुए बदल रही संस्कृति का एक अछूता पहलू लिए है। माना यह जाता है कि प्रवासी भारतीय अपने बच्चों की शादी के लिए भारत से दूल्हे इम्पोर्ट करते हैं, जबकि एक सच यह भी है कि उन्हें अमेरिकन भारतीय चाहिए। भारत से गए लोग उनके जीवन स्टाइल से मेल नहीं खाते। वे गरीब ही नहीं दकियानूस भी होते हैं। डॉ० पुलिन की पूरा एक वर्ष पूजा से चैटिंग चलती है। पूजा के पिता उसे भारत आकर देख भी जाते है। उसे सगाई के वीज़े पर अमेरिका बुलाया जाता है। यहाँ आकर उसे पता चलता है कि लड़की तलाक शुदा है। उसका पाँच वर्ष का बेटा है। उसके पाँव भी नहीं चलते। लेकिन उसे पूजा हर हालत में स्वीकार है। जबकि पूजा पिता के कहने पर उसे वापिसी टिकट के १००० डालर पकड़ा सॉरी कह देती है। अब पुलिन क्या करे ? वह देश और विदेश के बीच लटक रहा है। वह डाक्टर से मजदूर बन सकता है, पर भारत लौटना उसे मंजूर नहीं। क्या मुँह लेकर भारत जाए ?

खिड़की पुरुष सत्ता की आत्मकेंद्रित मूल्य चेतना की खिड़कियाँ खोल रही है। खिड़की का अर्थ है-बाहरी दुनिया से जुड़ाव का एक रास्ता, भले ही खिड़की बाहर की दुनिया को घर के अंदर नहीं ला सकती। यह जुड़ाव केवल पुरुष को चाहिए- पुरुष, जो सिर्फ पति तथा पुत्र है। पत्नी या बेटी को बाहरी दुनिया से जुड़ कर क्या लेना है। उनके लिए खिड़की बनाना घर की दीवार को कमजोर करना है। कहानी की नायिका वर्षों पति से घर में एक खिड़की का आग्रह करती रहती है। दिन भर घर से बाहर रहने वाले पति को पत्नी की यह जरूरत कभी जायज नहीं लगती। जैसे ही बेटे का जन्म होता है, पति का पिता रूप दीवारें तुड़वा खिड़की बनवा देता है। खिड़की के उस पार की दुनिया, उसकी हलचलों को देखने का अधिकार सिर्फ पति और पुत्र को है। पाँच वर्ष घर के अंदर रहने के बाद नायिका के अंदर की लड़की इस कदर मर जाती है कि उसे खिड़की की जरूरत ही नहीं रहती। मिट्टी का दिया विदेश के दीपावली पर्व का उल्लेख लिए है। वहाँ लोग घरों में लाइटें लगाते और मिट्टी का दिया जलाते हैं। त्योहार का आयोजन मंदिरों में रहता है। यह आयोजन कुछ दिन पहले ही शुरू हो जाता है। कुछ सार्वजनिक आयोजन भी होते हैं, जिनमें कत्थक या दूसरे नृत्य, फैशन शो, बाजार आदि रहता है। डोनेशन के नाम पर पैसे एकत्रित किए जाते हैं।

कादंबरी मेहरा
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि लेने के बाद कादंबरी मेहरा लंदन चली आई। भारत में उनकी जड़ें पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश तक फैली हुई हैं। लंदन में लगभग तीन दशक तक कादंबरी अध्यापन क्षेत्र से जुड़ी रहीं। अब सेवानिवृत्त हैं। कुछ जग की उनका कहानी संग्रह है। अपराधी कौन में अपराध नसलवादी मानसिकता का है। हर नसल अपने को दूसरों से बढ़कर मानती है। कहानी दो स्कूली बच्चों की है। अमीर भारतीय छात्र शैली मेहता अपने ही स्कूल की गरीब अफरीदी लड़की एना के सम्पर्क और संसर्ग में आता हैं और एना गर्भवती हो जाती हैं । शैली मेहता के माता पिता उसे बी. ए. करने के लिए भारत भेज देते हैं और लम्बे अर्से बाद वह शादी करवाकर ही इंग्लैंड लौटता है। इसी बीच सोलह वर्षीय एना बेटी शायना को जन्म देती है और उसके भरण पोषण के लिए उसे पढ़ाई छोड़ कैंटीन की ट्रेनिंग ले नौकरी करनी पड़ती है। एना के दुख गुस्सा बनकर बीच बाजार में फूट पड़ते हैं और वह पुलिस के लफड़ों में पड़ अपनी नौकरी भी खो बैठती है। इस नसलवाद की जड़ें गहरी हैं। शैली मेहता का पिता दुकानों को आग लगने पर कालों पर शक करता है और शायना भारतीयों पर शराब की बोतलें फेंकती है। इस सब के बावजूद उस देश में भी बिना बाप की बच्ची हेठी नजर से देखी जाती है। इसीलिए एक टैक्सी-चालक फ्रैंक अपना सरनेम मैकफील्ड उसे देता है।

कादम्बरी मेहरा की समझौता अपनी मिट्टी से उखड़कर इंग्लैंड में सम्पन्न और आधुनिक जीवन के भ्रम में समझौता करने वाले परिवार की कहानी है। इंग्लैंड प्रवास के कारण मक्खन सिंह पहले माइकल और फिर मिकी हो जाता है। जगिंदर जग्गो और फिर जैग हो जाती है। छिंदो मिसेज सिंह बन जाती है। सत्तनाम सिंह सत्ता और मलकीत मौली हो जाती है। यह परिवार विलाप भले ही पंजाबी में करे पर बातचीत में अंग्रेजी का पूरा प्रभाव दिखाई देता हैं। टैक्सी ड्राइवर सत्ता अंग्रेज सवारियों के दुर्व्यवहार से उत्पन्न डिप्रेशन और शराब के नशे में जंगली जानवर बन कट ग्लास की ऐश ट्रे फेंकता है और वह अचानक पत्नी के सिर पर लग उसे अस्पताल पहुँचा देती है और सत्ते को पुलिस स्टेशन। पुलिस की अमानवीय यातनाओं को न झेल पाने के कारण सत्ता वहीं दम तोड़ देता है। माँ छिंदो का भाई मक्खन सिंह बोस्टन से आता है। पड़ौसी पीटर और हेलेन सहानुभूति के लिए हैं। सिख समुदाय की सहानुभूति उसके साथ है। पर लाश इसलिए नहीं मिलती कि मामला दबा दिया जाए। ‘आखिरकार गरीबनी बिक गई। समझौता होने में दो हफ्ते लगते हैं, तभी लाश मिलती है। कहानी चीख-चीख कर कहती है कि सारे दुख का कारण प्रवास हैं, अकेलापन है, अपनी मिट्टी, अपने देश और अपने लोगों से उखड़ना हैं। यही दुघर्टना किसी अंग्रेज के साथ हुई होती, तो किसी यानना शिविर में उसके प्राण न लिए जाते। कोई समझौते न होते। सारी सहानुभूति के बावजूद अंग्रेज भारतीयों को अपने समान दर्जा कभी नहीं देते।

अर्चना पेन्यूली का जन्म १७ मई १९६३ को कानपुर, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। बी. एस. सी., एम. एस. सी. और बी. एड. के प्श्चात शादी हुई और मुम्बई में एक स्कूल में पढ़ाने लगी। १९९७ से डेनमार्क में हैं। होरोशोल्म इंटरनेशनल हाई स्कूल डेनमार्क में अध्यापन कर रही हैं। उपन्यास, कविता, अनुवाद, साक्षात्कार के अतिरिक्त अनेक कहानियाँ भारत की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं तथा नेट में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कहानियाँ डेनमार्क में रह रहे भारतीयों के जीवन के श्वेत-श्याम दोनों पक्षों को रेखांकित करती हैं।


अर्चना पेन्यूली
अर्चना पेन्यूली की अनुजा विदेश में रह रहे अपराधी वृत्ति के भारतीयों का जीवन लिए है। भारतीय विदेश में जहाँ भी गए हैं अपने समुदाय और धर्म से, तीज त्योहारों से जुड़े रहे हैं। ऐसे ही डेनमार्क के भारतीय भी त्योहार उत्सव पर मंदिर में ही मिलते हैं या फिर घरों में एक दूसरे को औपचारिक आमंत्रण भेजते हैं। ऐसे ही कोपेनहेगेन के एक मंदिर में सोलह वर्ष बाद स्कूल कालेज की सहेलियों अनुजा और सुधा की मुलाकात होती है। कहानी अनुजा के जीवन की त्रासदी लिए है। हरिद्वार से डेनमार्क पहुँच कर अनुजा को पता चलता है कि नदी के पार दिखने वाली घास सदैव हरी नहीं होती। उसे नई भाषा, नए तौर-तरीकों के साथ-साथ पति की बेवफाई और घोटालों की चुन्नौतियों से भी जूझना पड़ता है। क्योंकि उसका पति उन लोगों में से है, जो विदेश में असंवैधानिक शर्मनाक काम करके अपने लिए सुविधाएँ जुटाते हैं। अनुजा का पति दो बच्चों का पिता है। किसी स्वीडिश महिला से तलाक ले चुका है, पर न वह महिला उसे छोड़ती है और न बच्चे। वह एक शिपिंग कंपनी में काम करता है। यहाँ घोटाले में उसे दो वर्ष की सजा होती है और समाज उसे एक तरह से सपरिवार बहिष्कृत कर देता है। बास्केट बाल की चैम्पियन, सदा प्रथम आने वाली अनुजा की भारतीय पढ़ाई यहाँ किसी काम नहीं आती। उसे कहीं नौकरी नहीं मिलती। मजबूरन उसे एक होटल में सफाई कर्मचारी की नौकरी करनी पड़ती है। बाईस कमरों, टायलेट, गलियारों की सफाई करते-करते उसकी आफत आ जाती है। इकट्ठे रहने के बावजूद पति से तलाक ले अनुजा अकेली माँ होने का दावा करते हुए सरकार से पैसा ठगती है और पति दूसरी शादियाँ रचकर असंवैधानिक तरीकों से लोगों को डेनमार्क में व्यवस्थित करवाता है।

पति की मृत्यु पर उसे पता चलता है कि वह तो उसके द्वारा छोड़ी हुई किसी भी चीज की उत्तराधिकारी नहीं। क्योंकि कागजों पर तो उसका तलाक हो चुका है और जिस सपना को पति ने भारत से लाकर यहाँ व्यवस्थित किया था, कागजों पर वही उसके पति की पत्नी है। प्रवासी जीवन, बेवफा पति, उसका आपराधिक जीवन से जुड़ाव, समाज से कटाव और फिर वैधव्य- अनुजा को अनवरत क्रन्दन में बिलखने को भी नहीं छोड़ते। उसे तो उसी पराई धरती पर बच्चों का पालन-पोषण भी करना है। उनकी हाईवे-इ-फोर्टी सेवन में शुभा के संदर्भ में एक भारतीय परित्यक्ता स्त्री की वेदना और स्वाभिमान तथा एक माँ के मूल्य दिखाए गए हैं। बीस वर्षीय शुभ की शादी होती हैं। दो बेटे होते हैं। पाँच वर्ष बाद पति कोपेनहेगेन की एक टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में आता है और एक सेक्रेटरी के प्रति आकर्षित होने के कारण शुभ से तलाक माँगता है। एक पत्नीव्रत के भारतीय मूल्यों का अतिक्रमण कर यह पुरुष समय समय पर अपने लिए शुभ, एनीली, जिंजर जैसी पत्नियाँ जुटा रहा है और शुभ उसी देश में रहकर भी बेटों के कारण कभी किसी अन्य पुरुष का सोचती तक नहीं। हाँ ! बेटों के पास अपने कुछ रहस्य हैं- सौतेली माँओं के बारे में, सौतेले भई बहनों के विषय में- जिन्हें सगी माँ से कभी बाँटा ही नहीं जा सकता। कहानी सिडनी के कुछ अन्य चित्र भी प्रस्तुत करती है। शुभ की दोनों किडनियाँ काम नहीं कर रही। वह डायलिसिस पर है। लेकिन यहाँ स्वास्थ्य उसकी नहीं, उस देश की चिन्ता और समस्या हैं। यहाँ जिंजर जैसी औरतें भी हैं, जिन्होंने अपने शरीर के सभी अंगों के दान की इच्छा पहले से लिखवाई हुई है। यहाँ संबंधों का नया व्याकरण है। शुभ को अपनी ही सौत की किडनी मिलती है और वह नया जीवन पाती है। उस देश के कहते हैं कि सौत का अर्थ खलनायिका ही नहीं हुआ करता।

निष्कर्षतः विश्व के हर ओर-छोर तक फैली इन महिला लेखिकाओं का कहानी संसार अति विस्तृत फलक लिए है। सुषम बेदी ने दो संस्कृतियों के बीच पिस रहे व्यक्ति की विभिन्न मुद्राओं को रेखंकित किया है। उषा राजे सक्सेना बाल मनोविज्ञान के अनेक पहलू चित्रित कर रही हैं। दिव्या माथुर जिस निम्न /मध्यवर्ग की स्त्री को लेकर कहानी में उतरी हैं, वह यहाँ और वहाँ सर्वत्र विसंगति की शिकार है। इला प्रसाद पुरुषीय अहं के साथ-साथ प्रवासी भारतीय की पल-पल बदल रही मानसिकता को ध्वनित कर रही हैं। कादंबरी मेहरा नसलवादी मानसिकता में पिस रहे आम आदमी को प्रतिबिम्बित करती हैं तो अर्चना पेन्यूली ने दोनों संस्कृतियों के श्वेत-श्याम पक्ष लिए हैं।