डॉ. रेखा सेठी की समीक्षा-
''क्या तुमको भी ऐसा लगा' -शैलजा सक्सेना का कविता संग्रह
लगभग बीस बरस पहले भारत से विदेश प्रवास कर गईं कवयित्री शैलजा को जो संबंध एक बार फिर हिन्दुस्तान की जमीन और हिंदी की दुनिया में खींच लाया वह है कविता से उनका संबंध। पिछले तीस वर्षों के अंतराल में, समय-समय पर सिरजी जाती कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। इन रचनाओं का पहला संकलन हाल ही में ‘क्या तुमको भी ऐसा लगा ?’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इन कविताओं की भावप्रवणता पाठक को एक अलग स्तर पर प्रभावित करती है। सर्दियों में पत्तों से छनकर आती धूप जिस तरह रोशनी और गरमाहट देती है शैलजा की ये कविताएँ विचारधारा और विमर्शों की टकराहट से लैस आज की कविता के माहौल में अपनी कोमल संवेदनशीलता से उसी तरह का मासूम अनुभव बाँटती हैं।
''क्या तुमको भी ऐसा लगा' -शैलजा सक्सेना का कविता संग्रह
लगभग बीस बरस पहले भारत से विदेश प्रवास कर गईं कवयित्री शैलजा को जो संबंध एक बार फिर हिन्दुस्तान की जमीन और हिंदी की दुनिया में खींच लाया वह है कविता से उनका संबंध। पिछले तीस वर्षों के अंतराल में, समय-समय पर सिरजी जाती कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। इन रचनाओं का पहला संकलन हाल ही में ‘क्या तुमको भी ऐसा लगा ?’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इन कविताओं की भावप्रवणता पाठक को एक अलग स्तर पर प्रभावित करती है। सर्दियों में पत्तों से छनकर आती धूप जिस तरह रोशनी और गरमाहट देती है शैलजा की ये कविताएँ विचारधारा और विमर्शों की टकराहट से लैस आज की कविता के माहौल में अपनी कोमल संवेदनशीलता से उसी तरह का मासूम अनुभव बाँटती हैं।
विजय शर्मा का शोधपत्र-
''अखबार वाला'' की छटपटाहट' -सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी
‘अखबार वाला’ की जया काफ़ी समय से अमेरिका में रह रही है। पहले एक इलाके में वह दस साल रही और अब इस इलाके में – जहाँ कहानी घटित होती है वहाँ – भी पिछले दो साल से रह रही है। वह समूहवादी समाज भारत की उपज है जहाँ व्यक्ति अपने पास-पड़ौस के जीवन का सक्रिय अंग होता है। मगर अब वह व्यक्तिवादी समाज अमेरिका में रह रही है जहाँ पास-पड़ौस के जीवन में रूचि लेना दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप माना जाता है। लोग इसे नापसंद करते हैं। दु:ख-सुख को खुद तक ही सीमित रखना सभ्यता मानी जाती है। वे अपने दु:ख-सुख को सार्वजनिक नहीं करते हैं। यहाँ की सामाजिकता का तकाजा है कि अपने दु:ख-दर्द को अपने घर के दरवाजे के भीतर तक ही समेट कर रखा जाए। अगर कोई ‘हेलो हाय’ से आगे बढ़ने की चेष्टा करता भी है तो इसे अनाधिकार की संज्ञा दी जाती है। पड़ौसी एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते हैं और न ही जानने में रूचि रखते हैं। दरवाजों पर नेमप्लेट लगाने का रिवाज भी नहीं है।
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बहुत कम लोग जानते हैं कि एक साल से भी कम समय के लिये मुम्बइया फ़िल्मों से जुड़ने वाले प्रेमचंद ने सन् १९३४ में मज़दूर उर्फ़ मिल नाम की जिस फ़िल्म की पटकथा लिखी थी, उसकी नायिका कौन थी – वह थी बिब्बो । उसका असली नाम था इशरत सुल्ताना । इशरत सुल्ताना का जन्म पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाज़ार के समीपवर्ती इशरताबाद नामक इलाक़े में हुआ था । उसकी माँ हफ़ीज़न बाई कोठे पर नाचने-गाने वाली तवायफ़ थी । इशरत सुल्ताना के आरम्भिक जीवन के बारे में बहुत-सी बातें अज्ञात हैं या विवादास्पद हैं, जैसे कि उसका जन्म कब हुआ, उसके पिता का क्या नाम था और उसका नाम बिब्बो किसने रखा । यदि फ़िल्मों में प्रवेश के समय उसकी उम्र २० वर्ष की रही हो, तो कह सकते हैं कि उसका जन्म सन् १९१२ के आसपास हुआ था और २०१२ उसकी जन्मशती का वर्ष है ।
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किसी राष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव का परिचायक वहाँ का लोक साहित्य होता है, जिसमें उस राष्ट्र के संस्कार, परंपराएँ, जीवनादर्श, उत्सव-विषाद, नायक-नायिकाएँ, ऋतु गीत, विवाह गीत, भजन, राजनैतिक-सामाजिक गीत, विरह गीत इत्यादि को वाणी प्रदान की जाती है। यूँ तो प्रायः प्रत्येक देश में लोक साहित्य की एक सुदीर्घ परंपरा प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश देशों का लोक साहित्य एकाध भाषाओं अथवा बोलियों तक सीमित रहता है। भारतवर्ष इस मामले में सौभाग्यशाली है क्योंकि इस देश की कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी की परंपरा ने इसे बोलियों एवं भाषाओं का एक विस्तृत कोश प्रदान किया है, जिसमें लोक साहित्य के अलबेले रंग-रूप क्रीड़ा करते हुए देखे जा सकते हैं। कहना न होगा, भोजपुरी भी इस कोश की अक्षय मंजूषा है।
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आज प्रवासी भारतीय विश्व के १६८ देशों में फैले हैं। लाखों की संख्या में विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय वहां की औसत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व भी करते हैं और उन देशों की आर्थिक राजनैतिक नीतियों को दशा और दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहे हैं। प्रवासी भारतीय मजदूर, व्यापारी, शिक्षक, अनुसंधानकर्त्ता, डाक्टर, वकील, प्रबंधक, प्रशासक आदि के रूप में पूरे विश्व में स्वीकृत हैं। उनके साथ उनके परिवार भी विदेशों में हैं। अपनी परिश्रम की प्रवृत्ति, लगन और शैक्षणिक योग्यताओं के कारण उन्होंने वहां विशिष्ट स्थान बनाए हैं। सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में भारत की छवि ने प्रवासी भारतीयों का कद ऊॅंचा कर दिया है।
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कृष्ण कुमार अग्रवाल का शोधपत्र-
वर्तमान हिन्दी कहानी और लिव-इन-रिलेशनशिप
लिव-इन-रिलेशनशिप से अभिप्राय उस प्रणाली से है, जिसमें स्त्री-पुरुष बिना किसी कानूनी अथवा सामाजिक रीति के, केवल समझौते के आधार पर एक-दूसरे के साथ रहते हैं। लिव-इन-रिलेशनशिप पर किसी प्रकार के बंधन न होने के बावजूद स्त्री-पुरुष के बीच पति-पत्नी जैसे संबंध होते हैं अर्थात उनका शारीरिक संबंध भी होता है। परंतु वे पूरी तरह से स्वतंत्र होते हैं। वस्तुतः इस संबंध में दोनों यह मानते हैं कि वे आर्थिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भर नहीं हैं और स्वतंत्र विचार के पढ़े-लिखे लोग हैं अतः विवाह जैसी औपचारिक रस्म की आवश्यकता नहीं है। भूमंडलीकरण तथा बाजारीकरण के इस दौर में हमारी पारिवारिक तथा सामाजिक संरचना में काफी परिवर्तन हुए हैं। हमारी मान्यताओं में काफी बदलाव आया है।...
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मोहन राकेश की हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है कविता के अतिरिक्त उन्होंने प्राय: सभी विधाओं में रचनाओं का सृजन किया है नाटकों, उपन्यासों और अनेक कहानियों के साथ साथ उन्होंने यात्रावृत्तांत, निबंध भी लिखे थे तथा संस्कृत और अंग्रेजी से अनुवाद किया है, जैसे मृच्छकटिक और अभिज्ञानशाकुन्तल का। मात्र तैंतीस साल की आयु में ‘आषाढ़ का एक दिन‘ के लिये साहित्य अकादमी का नाट्य लेखन पुरस्कार जीतने वाले मोहन राकेश ने कुल चार नाटक और कुछ एकांकी लिखे हैं, जो अपने दृष्टिकोण और व्यंजना के कारण प्रगतिशील माने जाते हैं । आज भी खेले जाने वाले इन नाटकों ने हिंदी रंगमंच को अनचाहे पुरातन प्रयोगों से मुक्त कर दिया। रूप एवं शैली के साथ प्रयोग करने की परंपरा हिंदी साहित्य में पुरानी है, लेकिन यह कविता से ही संबंधित रही।
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पूजा प्रजापति का शोधपत्र-प्रवास और एकांत के विविध आयाम रचती पूर्णिमा वर्मन की कहानियाँ
शारजाह में प्रवास के दौरान वेब पत्रिकाओं ‘अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ में हिंदी साहित्य को प्रतिबद्धता से प्रसारित करने वाली लेखिकापूर्णिमा वर्मन अपनी कहानियों के प्रति भी बेहद सजग दिखाई देती हैं। अपने वतन को छोड़ कर एक दूसरे देश में नयी दुनिया बसाने का, उसे अपनाने का संघर्ष इनकी कहानियों में मुखरित हुआ है। साथ ही इन कहानियों में स्वदेशीय समाज और संस्कृति की झलक भी मिलती है। इनके नायक प्राय: गौण भूमिका में ही दिखाई देते हैं। इनकी नायिकाएं अपनी जड़ों से दूर होते हुए भी उनसे जुड़ी हुई हैं। अपने अतीत की स्मृतियों और वर्तमान, भविष्य की चुनौतियों के बीच वह सभी एक अंतरद्वंद्व में जीती हैं। नये जीवन के बीच अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए चिंतित हैं। वह पुराने व नये शहर और देश के समाज-संस्कृति की तुलना करती हैं।